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Shri Bhagvat Sudha (श्री भागवत सुधा)

195.00

Author Sri Hariharanand Saraswati
Publisher Radhakrishna Dhanuka Prakashan Sansthan
Language Sanskrit & Hindi Translation
Edition 7th edition, 2018
ISBN -
Pages 314
Cover Hard Cover
Size 16 x 3 x 24 (l x w x h)
Weight
Item Code KJM0011
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Description

श्री भागवत सुधा (Shri Bhagvat Sudha) ब्रह्मलीन स्वामी करपात्रीजी इस युग के अप्रतिम विद्वान, साधक और भक्त थे । यह अत्यन्त दुःखद है कि उनके ग्रन्थों का समुचित प्रचार नहीं हुआ। एक तो कारण यह था कि वे निःस्पृड थे-लिखा, फेंक दिया, पूछा भी नहीं किकब छप रहा है। ग्रन्थों की विक्री की आमदनी ट्रस्टों में गयी। दूसरा कारण यह था कि उनकी उपलब्धि का ठीक तरह मूल्यांकन नहीं हुआ। वेद-मीमांसा, दर्शन, तन्त्र, वेदान्त-मीमांसा, समकालीन राजनीति, भक्ति, उपासना और साहित्य विशेषतः भक्ति-साहित्य-इन सब विषयों पर उन्होंने संस्कृत और हिन्दी में ग्रन्थ लिखे। उनकी ताकिक शैली जितनी प्रखर और तोक्ष्ण है, उतनी ही सरस है उनकी भाव-प्रवण शैली। उनके व्यक्तित्व में एक ओर भास्वर तर्क-ककंशता थो, निर्भीकता थी और बौद्धिकता का प्रवल आग्रह था, दूसरी ओर उसी व्यक्तित्व में भक्ति-विगलित भाव था, प्रेमानुग। भक्ति की तल्लीनता थी। इन दोनों में ऊपर से विरोध भले दिखता हो, दोनों का विलय परमहंस- भाव में हो गया था। वे सनक, नारद, शुकदेव और शाण्डिल्य की परम्परा की एक कड़ी थे-बिल्कुल निरपेक्ष होते हुए भी निरन्तर परमतत्व के लिए साकांक्ष । उनसे मेरी लगभग अन्तिम भेंट हुई तो उनके पार्श्ववर्ती शिष्य ने बतलाया – महाराज जी अब केवल रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत पढ़वाकर सुनते हैं, इस समय चिकित्सकों ने पढ़ने से मना किया है।

पहले कुछ दूसरी रचनाएँ भी, विशेष करके आस्तिक भाव का रचनात्मक साहित्य भी सुनते थे। अब यही दो ग्रन्थ सुनना चाहते हैं। मैंने स्वामीजी से पूछा-महाराज जो, ऐसा क्यों ? बोले-जहां मुझे लगता है कि लिखने वाले ने कुछ अपेक्षा की है-चाहे वह अपेक्षा यश की ही क्यों न हो- वहाँ मेरी रुचि अब नहीं होती। श्रीमद्भागवत और रामचरितमानस लिखने वाले ने कोई अपेक्षा नहीं की, उनसे अपेक्षा अवश्य को गयी थी कि तुमने मेरा काम नहीं किया, तुमने लीलागान नहीं किया, तुम्हारी वाणी व्यर्थ है। इतना कहकर चुप हो गये। इसके बाद संकेत दिया, मानस से प्रसंग सुनने लगे और उनकी स्थिति हनुमान जी की तरह हो गयी, जब सीता का सन्देश प्रभु को सुना चुके, आंखों में आँसू, शरीर में रोमांच था।

स्वामीजी के भक्तिपरक व्याख्यान जिन्हें सुनने का सौभाग्य मिला है, उन्हें अनुभव होगा कि कितना डूबकर वे बोलते थे, उन्हें सुधि नहीं रहती थी। उनकी विद्वता, उनकी कठिन साधना और उनकी कारयित्री प्रतिभा, इन तीनों की त्रिवेणी जब भक्ति के प्रयाग में मिलती हैं तो उनका सबसे महत्वपूर्ण अवदान है “भक्ति-सुधा” और “भागवत-सुध।”।

भक्तिसुधा एक प्रकार से प्रस्तुत भागवत सुधा की भूमिका है। भागवत सुधा में आठ पुष्पों में भागवत के कुछ मार्मिक प्रसंगों पर पूज्य स्वामी जी के प्रवचन संकलित हैं। प्रथम पुष्प में भक्ति के वैदिक और औपनिषद आधारों का गम्भीर विवेचन है। द्वितीय पुष्प में भागवत के जीवनभूत दो श्लोकों की व्याख्या है जिसमें पहला भागवत का प्रथम श्लोक है और दूसरा श्रीकृष्ण के वृन्दावन-प्रवेश का वर्णन करने वाला ‘बर्हापोडम्’ श्लोक है। तृतीय पुष्प में भागवत के वक्ता श्रोता तथा प्रतिपाद्य का विवेचन है। चतुर्थ पुष्प में भागवत के प्रारम्भ की सार्थकता का विवेबन है तथा प्रथम स्कन्ध के कई मार्मिक प्रसंगों का विवेचन है। पंचम पुष्प में द्वितीय और तृतीय के प्रसंग हैं। पष्ठ पुष्प में सप्तम स्कन्ध के प्रसंग हैं तथा शरणागति का निरूपण है। सातवें पुष्प में वामनावतार का प्रसंग वर्णित हुआ है। आठवें में नवम एवं दशम के चुने हुए प्रसंग सरस ढंग से प्रतिपादित किये गये हैं। ये प्रबचन श्रीवृन्दावन में फाल्गुन शुक्ल द्वादशो से चैत्र कृष्ण चतुर्थी मंगलवार तक संवत् २०३७ में दिये गये थे और ये टेप पर अंकित होते गये थे। उसी टेप के आधार पर इन प्रवचनों को लिपिबद्ध किया गया है। पूज्य स्वामी जी की रससिद्ध वाणी में परिवर्तन करना अपराध होता इसलिए उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। उनके प्रारम्भिक प्रतिदिन के मंगलाचरण श्लोक भी ज्यों के त्यों दिये गये हैं केवल यत्र-तत्र सन्दर्भ मूल से मिला दिये गये हैं।

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