Shri Linga Maha Puran (श्रीलिङ्गमहापुराण)
₹300.00
Author | Maharishi Ved Vyas |
Publisher | Gita Press, Gorakhapur |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 12th edition |
ISBN | - |
Pages | 832 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0182 |
Other | Code - 1985 |
5 in stock (can be backordered)
CompareDescription
श्रीलिङ्गमहापुराण (Shri Linga Maha Puran) इस पुराणका यह नाम इसलिये दिया गया है कि इसमें परमात्मा परमशिवको लिङ्गी-निर्गुण-निराकार अर्थात् अलिङ्ग कहा गया है। यह परमात्मा अव्यक्त प्रकृतिका मूल है, लिङ्गका अर्थ है अव्यक्त अर्थात् प्रकृति – ‘अलिङ्गं लिङ्गमूलं तु अव्यक्तं लिङ्गमुच्यते।’ (लिङ्गपुराण पू० १।३।१) ‘लिङ्ग’ शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- सबको अपनेमें लीन रखनेवाला या विश्वके सभी प्राणि-पदार्थोंका उद्भावक, परिचायक चिह्न अथवा सम्पूर्ण विश्वमय परमात्मा – ‘लयन्नाल्लिङ्गमुच्यते।’ (लिङ्गपुराण पू० १।१९।१६) प्रकृति-पुरुषात्मक समग्र विश्वरूपी वेदी या वेर तो महादेवी पार्वती हैं और लिङ्ग साक्षात् भगवान् शिवका स्वरूप है- ‘लिङ्गवेदी महादेवी लिङ्गं साक्षान्महेश्वरः।’ लिङ्गसे लिङ्गीका ख्यापन ही लिङ्गमहापुराणका विषय है। इसी विषय-वस्तुका प्रतिपादन लिङ्गपुराणमें विस्तार से विविधरूपोंमें हुआ है।
लिङ्गपुराण दो भागोंमें विभक्त है- पूर्वभागमें एक सौ आठ अध्याय हैं और उत्तरभागमें पचपन अध्याय हैं। इसके पूर्वभागमें माहेश्वरयोगका प्रतिपादन, सदाशिवके ध्यानका स्वरूप, योगसाधना, भगवान् शिवकी प्राप्तिके उपायोंका वर्णन, भक्तियोगका माहात्म्य, भगवान् शिवके सद्योजात, वामदेव आदि अवतारोंकी कथा, ज्योतिल्लिङ्गके प्रादुर्भावका आख्यान, अट्ठाईस व्यासों तथा अट्ठाईस शिवावतारोंकी कथा, लिङ्गार्चन-विधि तथा लिङ्गाभिषेककी महिमा, भस्म एवं रुद्राक्ष-धारणकी महिमा, शिलादपुत्र नन्दीश्वरके आविर्भावका आख्यान, भुवनसन्निवेश, ज्योतिश्चक्रका स्वरूप, सूर्य-चन्द्रवंश-वर्णन, शिवभक्ततण्डीप्रोक्त शिवसहस्त्रनामस्तोत्र, शिवके निर्गुण एवं सगुण स्वरूपका निरूपण, शिवपूजाकी महिमा, पाशुपतव्रतका उपदेश, सदाचार, शौचाचार, द्रव्यशुद्धि एवं अशौच-निरूपण, अविमुक्तक्षेत्र वाराणसीका माहात्म्य, दक्षपुत्री सती एवं हिमाद्रिजा पार्वतीका आख्यान, भगवान् शिव एवं पार्वतीके विवाहकी मांगलिक कथा तथा शिवभक्त उपमन्युकी शिवनिष्ठा आदि विषयोंका वर्णन है।
उत्तरभागमें भगवद्गुणगानकी महिमा, विष्णुभक्तोंके लक्षण, लक्ष्मी एवं अलक्ष्मी (दरिद्रा) के प्रादुर्भावका रोचक वृत्तान्त, दरिद्राके निवासयोग्य स्थान, द्वादशाक्षर मन्त्रकी महिमा, पशुपाशविमोचन, भगवान् शिव एवं पार्वतीकी विभूतियोंका निदर्शन, शिवकी अष्टमूर्तियोंकी कथा, शिवाराधना, शिवदीक्षा-विधान, तुलापुरुष आदि षोडश महादानोंकी विधि, जीवच्छ्राद्धका माहात्म्य तथा मृत्युंजय-मन्त्र-विधान आदि विषय विवेचित हैं। अन्तमें लिङ्गमहापुराणके श्रवण-मनन एवं पाठकी फलश्रुति निरूपित है। स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजी इस पुराणकी महिमा बताते हुए कहते हैं-
‘जो मनुष्य इस सम्पूर्ण लिङ्गपुराणको आदिसे अन्ततक पढ़ता है अथवा सुनता है अथवा द्विजोंको सुनाता है, वह परमगति प्राप्त करता है। उस महात्माकी श्रद्धा मुझ (ब्रह्मा) में, नारायणमें तथा भगवान् शिवमें हो जाती है। ‘लैङ्गमाद्यन्तमखिलं यः पठेच्छृणुयादपि ॥ द्विजेभ्यः श्रावयेद्वापि स याति परमां गतिम्। मयि नारायणे देवे श्रद्धा चास्तु महात्मनः॥’ (लिङ्गपुराण, उत्तर०, अ० ५५)
इस प्रकार सम्पूर्ण लिङ्गपुराण विशेष रूपसे शिवोपासनामें पर्यवसित है। इसमें भगवान् शिव एवं भगवान् विष्णुका अभेदत्व प्रतिपादित हुआ है। इसमें आयी स्तुतियाँ अत्यन्त गेय तथा कण्ठ करने योग्य हैं। इसके आख्यान बड़े ही रोचक और भगवद्भक्तिको स्थिर करनेवाले हैं। इस पुराणमें सदाचारधर्मकी बड़ी प्रतिष्ठा वर्णित है और नित्यकर्मोंके सम्पादनकी बड़ी महिमा आयी है। इसमें आये सुभाषित बड़े ही ग्राह्य और कल्याणकारक हैं।
Reviews
There are no reviews yet.