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Srimad Bhagwat Geeta (श्रीमद भगवत गीता)

51.00

Author Sri Kishor Das Krishnadas
Publisher Shri Durga Pustak Bhandar Pvt. Ltd.
Language Sanskrit & Hindi
Edition -
ISBN -
Pages 183
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code SDPB0053
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Description

श्रीमद भगवत गीता (Srimad Bhagwat Geeta) श्रीमद्भागवद् गीता का यह नवीनतम अंक जो श्रीकृष्ण परमहर्षि वेदव्यास रचित एवं व्याख्यायित है, इसे अब नवीन साज-स एवं पठनीय सामग्रियों के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है।

यह अन्य सभी प्रकाशकों द्वारा मुद्रित प्रकाशित ‘श्रीम‌द्भाग गीता’ से अलग-थलग एवं भिन्न है। सुस्पष्ट मुद्रण, जनमान्य भाषा से भावार्थ सहित लोकदृष्टि से सरल-सुगम एवं सुपाठ्य बनाने का भरसक प्रयत्न किया गया है, ताकि लोग इसे आसानी से ग्रहण कर परमपुष्य के भागी हों।

हम अपने समस्त सुहृद पाठकों, मनीषियों एवं पुस्तक विक्रेताओं के आभारी हैं। जो हमें आगे भी ऐसी पुस्तक प्रकाशन के लिए सदैव प्रेरणा एवं प्रोत्साहन देते रहे हैं। उनसे सदैव अपेक्षा एवं अपनापन का सा भाव बना रहे और समय-समय पर हमें सत्प्रकाशन के लिए प्रेरित करते रहें। नये वर्षारम्भ से हमने अपने प्रेमी पाठकों एवं पुस्तक विक्रेताओं के हितार्थ नई-नई पुस्तकों का सृजन कार्य करने का निर्णय भी लिया है। उनसे जुड़ा आपका सहयोग एवं सद्भावना के साथ हम भी हैं आपको सुखद भावनाओं के साथ-श्रीमद्भगवद्गीता गीता में भगवान ने अपनी प्राप्ति हेतु मुख्य दो मार्ग दर्शायें हैं- एक सांख्य योग, दूसरा कर्म योग।

१- सांख्य योग-समस्त पदार्थ मृग-तृष्णा के जल की भाँति अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश मायामय होने से माया के कार्यरूप समस्त गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा जानकर मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होने वाले समस्त कर्मों में कर्तापन के गर्व से रहित होना (अध्याय ५ श्लोक ८-९) तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से प्रतिदिन स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव के अलावा अन्य किसी के होने का भाव न रहना, यह सांख्ययोग साधन है एवं-

२-कर्मयोग– सबकुछ भगवान का विचारकर सिद्धि-असिद्धि में समत्व भाव स्थापित करते हुए आसक्ति और फल की इच्छा का त्याग कर भगवद ज्ञानुसार केवल ईश्वर के लिए सब कर्मों का आचरण करना (अ०२ श्लोक ४८, अ०५ श्लोक १०) तथा श्रद्धा भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर से सभी प्रकार से ईश्वर के शरणागत होकर नाम, गुण और प्रभाव सहित उनके स्वरूप का लगातार चिन्तन करना (अ० ६ श्लोक ४७), यह कर्म योग का साधन है।

उपरोक्त दोनों साधनों का परिणाम एक होने के कारण वे वास्तव में अभित्र समझे गये है (अ० ५ श्लोक ४-५)। परन्तु साधन काल में अधिकारी भेद से दोनों में भेद होने के कारण दोनों मार्ग अलग-अलग बतलाये गये हैं (अ० ३ श्लोक ३)। इसलिए एक साधक दोनों मार्गों द्वारा एक समय में नहीं चल सकता, जैसे श्रीगंगाजी जाने के लिए दो मार्ग होते हुए भी एक मनुष्य दोनों मागों द्वारा एक समय में नहीं जा सकता। उक्त साधनों में कर्मयोग का साधन संन्यास-आश्रम में नहीं बन सकता; क्योंकि संन्यास आश्रम में कर्मों का स्वरूप से भी त्याग कहा गया है, परन्तु सांख्ययोग का साधन सभी आश्रमों में निर्मित हो सकता है।

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