Uttar Gita (उत्तरगीता)
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Author | Swami Sarvesh Chaitnya |
Publisher | Chaukhamba Vidya Bhavan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2010 |
ISBN | - |
Pages | 111 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0754 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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उत्तरगीता (Uttar Gita) यह सर्वविदित है कि महाभारत युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा किया तो अपने सगे-सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन मोहवश दुःखी हो गया। उसके मोह को दूर करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे गीता-ज्ञान का उपदेश दिया, लेकिन यह उपदेश सुनने के बाद अर्जुन को इसके मनन और निदिध्यासन का अवसर नहीं मिला तथा भोग के प्रयोजक प्रारब्ध कर्मों की प्रबलता के कारण अर्जुन इस उपदेश को भूल गये। यदि चिन्तन किया जाय कि अर्जुन का वैराग्य क्षणिक था या स्थाई, तो यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि वैराग्य विवेकपूर्वक होता तो बारह वर्षों के वनवास के समय वे युद्ध-सामग्री तथा अस्त्र- शस्त्रों को इकट्ठा ही न करते। भगवान् शिव को प्रसन्न करने के बाद भी वे उनसे पाशुपत अख प्राप्त करते हैं, न कि ज्ञान।
अर्जुन युद्ध में अपने सम्बन्धियो को मारना नहीं चाहता और जो तर्क वह युद्ध न करने के लिए दे रहा है, वे लौकिक ज्ञान की दृष्टि से तो उचित प्रतीत होते हैं, फिर भी वे परमार्थ की ओर ले जाने वाले नहीं हैं। तभी तो भगवान् को कहना पड़ता हैं।
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांच भाषसे ।
गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ (२.११)
हे अर्जुन ! तुम बोली तो ज्ञानियों की बोल रहे हो; परन्तु यथार्थ में तुम विवेकी नहीं हो। तुम मोह से ग्रसित होकर ही इस प्रकार की बातें कर रहे हो। अर्जुन की मनःस्थिति को देखकर उसके उत्थान के लिए जो उचित मार्ग है, श्रीमद्भगवद्-गीता में भगवान् ने उसी का उपदेश दिया है, जिससे कि उसका अन्तःकरण शुद्ध हो और वह अपना कर्तव्य कर्म करे। साथ ही साथ, बीच-बीच में, भगवान् अर्जुन को लक्ष्य का भी निश्चय कराते हुए यह बताते हैं कि ये सब साधन तत्त्वज्ञान के लिए आवश्यक है।
अधिकारी के भेद से जहाँ शास्त्र एक समय पर कर्त्तव्य का उपदेश देता है, वहीं कालान्तर में जब साधक परिपक्व हो जाता है तब उसे कर्तव्य छोड़ने को भी कहता है; क्योंकि जब तक कर्त्तव्य है तब तक मुक्ति नहीं है। जैसा कि ‘त्रिपुरारहस्य’ में परशुरामजी को उपदेश देते समय भगवान् दत्तात्रेय ने कर्त्तव्य को पिशाच की उपमा दी है-
कर्त्तव्यतैव दुःखानां परमं दुःखमुख्यते ।
तत्सत्त्वे तु कथञ्चेतौ दुःखाभावः सुखञ्च वा ।।
यावत् कर्त्तव्यवेतालान्त्र विभेति दृढं नरः ।
न तावत् सुखमाप्नोति वेतालाविष्टवत् सदा ।।
दुःखों में सबसे बड़ा दुःख कर्त्तव्यबोध ही है। कर्त्तव्यों के रहते हुए दुःख का अभाव तथा सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? जब तक कर्तव्यरूपी वेताल (पिशाच) का अन्त नहीं होता तब तक मनुष्य डरता रहता है और तब तक पिशाचग्रस्त की तरह सुख की प्राप्ति भी नहीं होती है। एक माँ एक समय शिशु को खेलने के लिए कहती है; लेकिन जब वही शिशु बालक हो जाता है तब वही माँ उसे खेलने से मना करके पढ़ने को कहती है। इसी प्रकार अर्जुन की योग्यता को देखते हुए भगवान् उसे कर्तव्य का उपदेश देते हैं, लेकिन अपने कर्तव्य कर्मों को करके राज्यादि का सुख भोगकर जब अर्जुन इनकी निःसारता को जान लेता है तब वह भगवान् से पुनः ब्रह्मोपदेश के लिए याचना करता है। अर्जुन अभी परोक्ष ही ज्ञानी है। उसे ब्रह्म का लक्षण तो मालूम है, परन्तु अनुभूति नहीं है। वह ब्रहा की अपरोक्ष अनुभूति के लिए भगवान् से प्रार्थना करता है। अर्जुन की प्रार्थना सुनकर परम कारुणिक भगवान् उसे संक्षेप में ब्रह्मोपदेश देते हैं। यह उपदेश ही उत्तरगीता के नाम से विख्यात है।
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