Vedic Vangmay Ka Parisheelan (वैदिक वाङ्मय का परिशीलन)
₹515.00
Author | Dr. Omprakash Pandey |
Publisher | Uttar Pradesh Hindi Sansthan |
Language | Hindi |
Edition | 1st edition, 2019 |
ISBN | 978-81-940302-2-5 |
Pages | 555 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 3 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | UPHS0033 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वैदिक वाङ्मय का परिशीलन (Vedic Vangmay Ka Parishilan) यह ग्रन्थ ‘वैदिक वाङ्मय का परिशीलन’ उन सुधी साधकों के लिए पुष्ट पाथेय है जो चेतना के उत्कृष्टतम धरातल पर पहुँचने के लिए तपोरत है। परम लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में शंकाओं-आशंकाओं के दुर्गम पहाड़ लाँघने पड़ते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ उन शंकाओं-आशंकाओं को जड़-मूल से उखाड़ कर आस्था और विश्वास को न केवल सजीव वरन् अजेय और निर्भीक बना देता है।
आर्ष मेधा के धनी विद्वद्वर प्रोफेसर डॉ. ओम्प्रकाश पाण्डेय द्वारा प्रणीत यह पुस्तक वेद के सम्बन्ध में हर सामान्य जिज्ञासा का समाधान उपस्थित करती है। ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद तक की यात्रा पाठक भाव-विभोर होकर करता है। ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् नामक इस मानस यात्रा के तीन पड़ाव है। इनको पार करने के पश्चात् ऋषि-मुनियों की जीवन-शैली के कान्तार में मन सहसा प्रविष्ट हो जाता है। यह वह अवस्था है जिसके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है उघरहिं विमल विलोचन हिय के, मिटहिं दोष दुःख भव रजनी के। प्रथम खण्ड में मंत्र-संहिताओं के साथ विभिन्न ऋषियों के विचारों को आधुनिक प्रसंगों के साथ व्याख्यायित किया गया है। द्वितीय खण्ड में वैदिक समाज और उसकी संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय खण्ड में वैदिक धर्म और दर्शन को स्पष्ट किया गया है।
ब्राह्मणों के पश्चात् आरण्यकों की ज्ञान-धारा है। प्रथम खण्ड के इन अध्यायों में आरण्यकों का ब्राह्मणों से सम्बन्ध, मुख्य प्रतिपाद्य विषय के साथ अनेक नये ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों की प्रस्तुति की गयी है। आरण्यकों का प्रमुख विषय प्राणविद्या तथा प्रतीकोपासना है। विभिन्न वस्तुओं में एक ही तत्त्व कैसे अनुस्यूत है। इसका निरूपण ऐतरेयारण्यक में हुआ है। तैत्तिरीय आरण्यक में काल का निदर्शन बहुत सुन्दरता से किया गया है। बृहदारण्यक में ब्रह्म, आत्मा और पुनर्जन्म का विशद वर्णन हुआ है। बौद्धिक जिज्ञासाओं के शमन के लिए आरण्यक साहित्य का प्रणयन हुआ है। प्रो. पाण्डेय ने ब्राह्मणों एवं आरण्यकों के विषय में पाश्चात्य विद्वानों के विचारों को भी उद्धृत किया है। ओल्डेन बर्ग और मैक्डॉनेल ने ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त आरण्यकों की भी प्रशंसा उन्मुक्त हृदय से की है। लेकिन जहा पाश्चात्य वेद विचारकों ने पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रहवश त्रुटियाँ की है, वहा उनका इस ग्रन्थ में सप्रमाण खण्डन भी किया गया है। साहित्यिक दृष्टि से ‘वैदिक वाङ्मय का अनुशीलन’ इस ग्रन्थ का रुचिकर प्रतिपाद्य विषय है। काव्यात्मक सौन्दर्य को लेकर अनेक वैदिक उद्धरण दिये गये हैं। उपमा और रूपक अलंकारों से युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों रूपों के उदाहरण दिये गये हैं। ऋग्वेद सं. १.११६.२ के इस उद्धरण में संयोग श्रृंगार का रूपक है।
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