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Niruktam (निरुक्तम्)

170.00

Author Acharya Vishveshwar
Publisher Gyanmandal
Language Hindi
Edition 2020
ISBN -
Pages 561
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code GM0003
Other श्री यास्काचार्य 'निरुक्तम' के 'नैघंटुक्कंड़' और 'नैगमकांड' की हिन्दी व्याख्या

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Description

निरुक्तम् (Niruktam) प्रस्तुत ग्रन्थमें क्या है, इसका विस्तृत परिचय हिन्दी टीकाकारने इस ग्रन्थके प्रारम्भमें ही दे दिया है। यदि हम उसे इस ग्रन्थकी भूमिका कहें तो कदाचित् कोई अतिशयोक्ति न होगी। हिन्दी टीकाकार आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि दिवंगत हो गये। यदि वह जीवित होते तो निश्चय ही वह इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थकी भूमिकामें बहुत कुछ लिखते। इसपर लिखनेके लिए उनके पास बहुत कुछ रहा होगा। पर अब तो उसे प्राप्त करनेका कोई उपाय नहीं। अतः वह जो कुछ लिख गये हैं। उसीसे सन्तोष करना होगा। वेदके अर्थज्ञानके लिए यास्ककृत निरुक्तका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसीसे यह ग्रन्थ वेद न होते हुए भी वेदके समान ही महत्त्वपूर्ण है। निरुक्तके सिवा कोई ऐसा शास्त्र नहीं है जो तात्पर्यानुसार सव शब्दोंका निर्वचन। जैसे सब शास्त्रोंमें शब्दज्ञान व्याकरण आदिसे होता है, वैसे ही वेदके शब्दोंके अर्थका निर्वचन परिज्ञान एकमात्र निरुक्तसे ही होता है। अर्थ परिज्ञानमें कारणीभूत होनेके कारण निरुक्त वेदका सर्वप्रधान अङ्ग है।

यह निरुक्त ‘निघण्टु’का व्याख्यान है। निघण्टु प्रधानतया ऋग्वेदके शब्दोंका संग्रह है। इस ग्रन्थके महत्त्वका पूरा परिज्ञान इसका अध्ययन करनेपर ही होगा। संक्षेपमें इतना ही कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थका सम्मान एवं महत्त्व मूल ग्रन्थसे भी अधिक है। निघण्टु एक प्रकारका वैदिक शब्दकोश है। उसमें प्रधानतया ऋग्वेदके महत्त्वपूर्ण एवं क्लिष्ट शब्दोंका संग्रह किया गया है। इन शब्दोंके अर्थोंका ज्ञान हो जानेपर वेदार्थ समझना अत्यन्त सरल हो जाता है। इसमें शब्दोंका संग्रह इस प्रकारसे किया गया है कि उनके अर्थका ज्ञान सरलतासे हो सके। प्रारम्भके तीन अध्यायोंमें एक-एक अर्थके वाचक अनेक शब्दोंका संग्रह किया गया है। जैसे ‘गौः’ इत्यादि २१ पृथिवीवाचक शब्दोंका संग्रह एक स्थानपर कर दिया गया है। इन तीन अध्यायोंको ‘नैघण्टुककाण्ड’ कहते हैं। इसमें एकार्यवाचक अनेक शब्द संगृहीत हैं। इसके बाद चौथे और पाँचवें अध्यायमें शब्द-संग्रहकी शैली इससे भिन्न है। उसमें अनेकार्थक शब्दोंका संग्रह है। इसे नैगमकाण्ड कहते हैं। इस ग्रन्थमें एक भाग और है जिसे दैवतकाण्ड कहते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थमें टीकाकारने प्रथम दो काण्डोंकी ही टीका की है। ये ही दो काण्ड विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रममें हैं। विश्रुतकीर्त्तित्त टीकाकार आचार्य विश्वेश्वर तीसरे काण्डकी पृत्तिके पूर्व ही इस असार संसारसे सदा सर्वदाके लिए विदा हो गये। पर उनको यह अधूरी रचना होते हुए भी महत्त्वकी दृष्टिसे पूर्ण है जो पाठकोंको किसी प्रकार भी नहीं खटकेगी।

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