Adhyatma Ramayan (अध्यात्म रामायण)
₹540.00
Author | - |
Publisher | Khemraj Sri Krishna Das Prakashan, Bombay |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2019 |
ISBN | - |
Pages | 540 |
Cover | Hard Cover |
Size | 24 x 3 x 24 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | KH0001 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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अध्यात्म रामायण (Adhyatma Ramayan) भगवान् की लीला का रहस्य कौन जान सकता है। बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, महात्मा और सिद्धगण आजन्म उसी का मनन करते रहने पर भी उसका पार नहीं पा सके। किन्तु वह इतनी दुर्विज्ञेय और गूढ़ होने पर भी कितनी मधुर, मन मोहिनी और कल्याणमयी है। रसिक जन संसार के सभी भोगों को छोड़कर अपनी आयुको एकमात्र उसीके अनुशीलनमें लगाकर अपनेको अत्यन्त बड़भागी समझते हैं। वे उसकी माधुरीका आस्वादन करते-करते कभी नहीं अघाते। अन्य लौकिक एवं पारलौकिक भोगोंका पर्यवसान उनसे विरक्त हो जाने अघा जानेमें होता है, किन्तु इस लोकोत्तर रससे इसके रसिकका चित्त कभी नहीं ऊबता। जिसका चित्त इससे ऊबने लगे, समझना चाहिये उसने इसका आस्वादन ही नहीं किया। इसीलिये रसिकचक्रचूड़ामणि श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥
धन्य हैं वे महाभाग, जिन्हें उसके यथेष्ट आस्वादनका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। भगवान्के उसी दुर्लभ गूढ़ रहस्यको, जिसका यथावत् समझना बड़े-बड़े मेधावी आचार्य और योगनिष्ठ यतियोंके लिये भी अत्यन्त कठिन है और जिसे विभिन्नरूपसे ग्रहण करनेके कारण ही इस अनादि संसारमें अनादिकालसे अनन्त सम्प्रदायों और मतोंकी प्रवृत्ति होती आयी है, मुझ जैसे मन्दमतिको ठीक-ठीक समझ लेना कैसे सम्भव है? उसे समझनेके योग्य मेरे पास विद्या, बुद्धि, विवेक अथवा श्रद्धा आदि कोई भी तो सामग्री नहीं है। इस ओर मेरा प्रवृत्त होना भी बड़ी हँसीकी बात है और प्रवृत्त होनेके अनन्तर जितनी भी सेवा मुझसे बनी है उसपर भी मुझे तो आश्चर्य है। मैं इस बातको स्वयं ही अनुभव करता हूँ कि इस अनधिकार चेष्टामें प्रवृत्त होकर मैं विद्या और विद्वानोंका अपराध कर रहा हूँ। किन्तु, एक विचार है जो मुझे इन संकोच और आश्चर्य दोनोंहीसे मुक्त कर देता है। हम पद-पदपर देखते हैं कि अपनी इच्छा न होनेपर भी हमें बलात् बहुत-से ऐसे कार्योंमें लग जाना पड़ता है, जिनमें प्रवृत्त होनेको पहले कभी आशा भी नहीं थी। इसका कारण यही है कि हमारी सारी प्रवृत्तियोंका नियामक कोई और ही है, जो देहाभिमानके पर्देमें छिपा हुआ हमारे अन्तःकरणमें विराजमान है।
हमारी सारी प्रवृत्तियाँ उस हृदयस्थित देवके ही इशारेपर नाचती रहती हैं। वस्तुतः तो ‘हमारी प्रवृत्तियाँ, हमारी चित्तवृत्तियाँ’ ऐसा कहना और मानना भी अज्ञानवश परिच्छिन्न अहंकारको स्वीकार करनेके ही कारण है। विज्ञान-विभावसुका विमल प्रकाश होनेपर अज्ञानान्धकारके नष्ट होते ही जब देहाभिमानरूप उलूक न जाने कहाँ लुक जाता है, तब कर्ता, कर्म और करणादिका कोई भेद नहीं रहता। फिर तो प्रवृत्ति, प्रवर्तक और प्रवर्त्य-सब कुछ एकमात्र वह अन्तर्यामी ही रहते हैं, जिनके यत्किंचित् कृपा कटाक्षसे ही यह सम्पूर्ण प्रपंच भासित हो रहा है तथा जिनकी सत्ता पाकर ही यह सर्वथा असत् होनेपर भी, ध्रुव-सत्य बना हुआ है। अतः हमारा सारा संकोच और आश्चर्य तभीतक है जबतक हम सच्चे कर्ताको भूलकर तुच्छ देहाभिमानके सिरपर सारे कर्तृत्व-भोक्तृत्वका भार लाद देते हैं और उस देहाभिमानको देहाभिमान न समझकर अपना परमार्थस्वरूप मान बैठते हैं, नहीं तो जो लीलामय बिना किसी प्रयोजनके केवल लीलाके लिये ही इच्छामात्रसे इस अनन्त ब्रह्माण्डकी सृष्टि करते हैं, जिनकी मायासे मोहित होकर हमारी इस हाड़-मांसके पंजरमें आत्मबुद्धि होती है और फिर इसीकी आसक्तिमें फँसकर स्त्री-धन-धरती आदि महाघृणित और असार वस्तुओंमें रमणीय-बुद्धि होती है तथा जिनके लेशमात्र कृपाकणसे यह अनन्त ब्रह्माण्ड बालूकी भीत हो जाता है, उन महामहिम सर्वशक्तिमान् सर्वेश्वरके लिये क्या दुष्कर है? उनकी जैसी इच्छा होती है उसी ओर सबको प्रवृत्त होना पड़ता है और उनकी इच्छाके अनुसार ही उन्हें उसमें सफलता अथवा असफलता प्राप्त होती रहती है।
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