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Laghu Parashari (लघु पाराशरी)

60.00

Author Pt. Sitaram Jha
Publisher Master Khiladilal Sankta Prashad
Language Sanskrit & Hindi
Edition -
ISBN -
Pages 108
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0141
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Description

लघु पाराशरी (Laghu Parashari) महर्षि पाराशर प्रणीत होराशास्त्र की उपयोगिता के विषय में कुछ भी लिखना दिन में दीपक प्रज्ज्वलित करना है; क्योंकि इस कलिकाल में प्राणियों के कल्याण का मार्ग बतलाने वाले भगवान् पराशर ही हैं। सब निबन्धकारों ने ‘कलौ पराशरी स्मृतिः’। कलियुग में पराशर मतानुसार ही चलने का आदेश दिया है तथा बड़े-बड़े दैवज्ञों ने भी अनुभव करके ‘नक्षत्रायुः कलौ’ युगे (कलियुग में पराशर मुनि प्रदर्शित नक्षत्रायुर्दाय के अनुसार ही प्राणियों के जीवन भर का शुभाशुभ फल स्पष्ट रूप से मिलने का प्रमाण) बताया है।

महर्षि पराशर प्रणीत होरा शास्त्र को अति विस्तृत समझकर, ज्योतिषियों के उपकारार्थ उसमें से सारार्थ लेकर, उनके शिष्यों में से एक सुविज्ञ दैवज्ञ ने ४० श्लोक में ‘उड्डुदाय प्रदीप’ नामक ग्रन्थ लिखा। जिससे सर्व-साधारण जनों का असाधारण उपकार हुआ। आकाशस्थ राशि और ग्रह के बिम्बों में स्वाभाविक शुभत्व और अशुभत्व है। उनमें परस्पर साहचर्यादि तात्कालिक सम्बन्ध से विशिष्ट शुभाशुभत्व हो जाता है, जिसका प्रभाव पृथ्वीस्थित प्राणियों पर भी पूर्ण रूप से पड़ता है। अन्य जातक ग्रन्थों में ग्रहराशियों के स्वाभाविक शुभाशुभत्व से शुभाशुभ फल का निर्णय किया गया है। भगवान् पराशर ने अपनी होरा में स्वाभाविक और तात्कालिक दोनों तरह के विवेक से स्पष्ट शुभाशुभत्व समझकर तदनुसार ही फल का आदेश किया है। ‘उड्डुदायप्रदीप’ को पढ़कर जातक के शुभाशुभ फल समझने में लोग क्षम तो हुए अवश्य किन्तु वास्तव में पराशर होरा का पठन-पाठन बन्द हो गया; फिर वह ग्रन्थ भी दुष्प्राप्य-सा हो गया। इधर जब से किसी ने ‘बृहत्पाराशर होरा सारांश’ नाम की एक संग्रहीत पुस्तक प्रकाशित किया तब से ‘उडुदाय प्रदीप’ का नाम लोगों ने ‘लघुपाराशरी’ रख दिया है। इस ग्रन्थ की अनेक टीकाएँ हो चुकी हैं, परञ्च किसी में भी आद्योपान्त अर्थ-सङ्गतता मेरी दृष्टि में नहीं आयी। अतः सकल साधारण के सुख-बोधार्थ मैंने ‘तत्त्वार्थ प्रकाशिका’ नामक टीका लिखकर प्रकाशित करवाया जिसका प्रथम संस्करण उपयोगी होने के कारण हाथों हाथ बिक गया।

‘बृहत्’ और ‘लघु’ पराशरी नामक ग्रन्थ देखकर किसी गणक ने ‘मध्यपाराशरी’ नाम से एक ग्रन्थ लिखा। जिसमें न जाने सम्पादक या लेखक आदि के प्रमाद से बहुत जगह अशुद्ध, अयुक्त तथा पुनरुक्त पाठ दृष्टिगोचर हुए। जो प्रकाशित ग्रन्थ मूल या भाषाटीका रूप में मिलते हैं। उनमें भी मूल का संशोधन करना तो दूर रहा, मूलस्थित शुद्ध शब्द का भी अशुद्ध और असङ्गत अर्थ टीकाकारों ने लिखा है जो अबोध विद्यार्थियों के लिए लाभ के स्थान में हानिकारक हो सकता है। जैसे- मृगाधिप का अर्थ मकर, गुरु भाव का अर्थ वृहस्पति; मानभाव का अर्थ नवम भाव, वृष राशि में बैठकर तुला के नवांश में हो इत्यादि असङ्गत अर्थ है (क्योंकि वृषराशि में तुला या वृश्चिक का नवांश होता ही नहीं)।

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