Vedic Kosha (वैदिक कोषः)
₹680.00
Author | Pt. Bhagawat Datt & Hansraj |
Publisher | Vishv Bharti Anusandhan Parishad |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2020 |
ISBN | 978-81-85246-35-2 |
Pages | 699 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | VBRI0021 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वैदिक कोषः (Vedic Kosha) कालेज में अध्ययन करते समय में ऋषि दयानन्द सरखती प्रणीत येद-माध्य का खाध्याय किया करता था। श्री खामी जी महाराज अपने बेद-व्याख्यान में स्थल स्थल पर ब्राह्मणग्रन्थों के प्रमाणों को उद्धृत करते है। इन्हीं प्रमाणों के चल पर उन्होंने वेद-मन्त्रों के अनेक सार-गर्भित अर्थ दर्शाए हैं। मेरे मन में अनेक वार यह कामना उठती थी कि अखिल ज्ञात ब्राह्मण ग्रन्थों के ऐसे ही वाक्यों का यदि अकारादि-क्रम से संग्रह हो जाय, तो वेदान्यासियों को बड़ी सुगमता होगी । पुनः सन् १९१६ में में निरुत का पाठ किया करता था। निरुक्तः में-
इति ह विज्ञायते । इति ब्राह्मणम् ।
कह कर कई स्थलों पर ब्राह्मणग्रन्थान्तर्गत वैदिक-शब्दों का निर्वचन भी दिया हुआ है। उस निर्वचन से वेदार्थ में बड़ी सहायता मिलती है। उस से यह बात हृदयंगम हुई कि ब्राह्मण-ग्रन्थों में आये हुए वैदिक पदों के निर्वचन का भी अकारादि कम से संग्रह होना चाहिये। सन् १९१७ में ‘ ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन’ भाग प्रथम छापते समय मेरा ध्यान उनके एक पत्र की ओर आकृष्ट हुआ। उस में लिखा है-
“निघण्टु सूचीपत्र के सहित तुम्हारे पास भेज दिया है। और निरुक्त तथा ब्राह्मणों के प्रसिद्ध शब्दों की संक्षिप्त सूची भी बनाकर भेजेंगे सो निघण्टु की सूची के अन्त में छपवाना।”
सन् १९१८ में पं० हंसराज इस पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष बने। मेने ब्राह्मण-ग्रन्थों में से पूर्वोक्त दोनों प्रकार के वाक्यों का संग्रह करने के सम्बन्ध में उन से बात की। वे मुझे ही कार्य भार लेने के लिये कहते थे। अन्त को हम दोनों एक निधय पर पहुंच गये। तदनुसार पं० हंसराज ने सन् १९१८ के अन्त में संग्रह का काम आरम्भ कर दिया। तब से वे यह काम करते ही आये हैं। उन के इस अविश्रान्त परिश्रम का फल अब वैदिक-विद्वानों के सम्मुख उपस्थित किया जाता है। मैं भी समय २ पर उनके कार्य का निरीक्षण करता रहा हूं। मुझे सदा ही अत्यन्त प्रसन्नता होती थी, जब में उनके संग्रह में प्रायः सब ही आवश्यक शब्दों को आया हुआ पाता था। पर इतने बड़े काम में त्रटियों का होना बहुत साधारण बात है। हमें स्वयं इसकी अनेक त्रटियों का ज्ञान है। पर धनाभाव में हम इससे अधिक अच्छा काम नहीं कर सकते थे।
ग्रन्थनाम
हम ने इस संग्रह का नाम वैदिककोष रखा है। सम्भव है अनेक विद्वान् प्रश्न करें कि यह वेदान्तर्गत प्रत्येक शब्द का कोष तो है नहीं, पुनः इसका ऐसा नाम क्यों हमारा विचार है कि जैसे यास्कीय निघण्टु वैदिककोष कहा जाता है, वैसे यह बृहत्संग्रह भी वैदिककोष कहला सकता है। विशेषता इस में यह है कि इस में निर्वचनादि का संग्रह होनेसे यह निरुक्तादि का भी मूल कहा जा सकता है।
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