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Vivah Paddhati (विवाह पद्धतिः)

70.00

Author Acharya Devnarayan Sharma
Publisher Shri Kashi Vishwnath Sansthan
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2023
ISBN 978-93-92989-14-8
Pages 144
Cover Paper Back
Size 18 x 2 x 12 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0255
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Description

विवाह पद्धतिः (Vivah Paddhati) ‘विवाह’ सनातनधर्म एवं हिन्दूसमाज का एक आवश्यक एवं पवित्र संस्कार है। विवाह के पूर्ववर्ती अनेक संस्कारों का होना न होना या किञ्चित् परिवर्तन के साथ होना, यह क्षेत्र-विशेष की विभिन्न जातियों या वर्णों के कुलाचार या अपनी परम्परा पर निर्भर करता है। विवाह में स्थानविशेष या जातिविशेष के कुछ अलग रीति-रिवाजों के होने पर भी इस संस्कार की आत्मा में अनादिकाल से सर्वत्र एकरसता और एकरूपता देखी जाती है। विवाह हिन्दू जाति के चारों वर्णों, गिरिवासियों, वनवासियों तक में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ एक प्रमुख सामाजिक कड़ी के रूप में विद्यमान है। उनके जीवन में दाम्पत्यसम्बन्ध आध्यात्मिक तथा सामाजिक रूप से एक पवित्र अनुष्ठान के रूप में मान्यताप्राप्त है। यह एक ऐसा विधान है जो दो आत्माओं को एक बनाता है, दो दिलों को एक साथ धड़काता है तथा दो प्राणों के द्वैत को समाप्त कर एकत्व का भान कराता है।

उपनयन में जिस प्रकार ब्रह्मचारी के हृदय का स्पर्श करके गुरु शिष्य के ऐक्य के लिए मन्त्रपाठ करता है, उसी प्रकार विवाह में पति-पत्नी के ऐक्य के लिए पढ़े जानेवाले मंत्रों में दोनों कुलों के सम्बन्धों के उत्कर्ष एवं अभिवृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है। वर-वधू का पाणिग्रहण करते हुए मंत्र पाठ करता है कि- मैं तुम्हें सौभाग्य के लिए ग्रहण करता हूँ। मेरे लिए तुम्हारी रचना देवताओं ने की है और उन दिव्य शक्तियों ने तुम्हें मुझे दिया है। वर स्वयं को आकाश और पत्नी को पृथ्वी कहकर सृष्टि की प्रक्रिया का संकेत करता है-द्यौरहं पृथ्वीत्वं सहरेतो दधावहै, प्रजां प्रजनयावहै। दृढ़ता के प्रतीकस्वरूप पत्थर का स्पर्श करके वर कहता है कि अश्मेव त्वं स्थिराभव अर्थात् विपरीत परिस्थितियों में भी तुम चट्टान की तरह स्थिर रहना। सप्तपदी के मंत्रों में दृढ़ मैत्री, पारिवारिक दायित्व की पूर्ति एवं सर्वविध सम्पन्नता की कामना की गई है। इसमें बहुत सारी क्रियाएँ प्रतीकात्मक हैं, जिनका रहस्य जानना आवश्यक है।

विवाह के पश्चात् व्यक्ति का एक नया जीवन आरम्भ होता है जिसमें पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक दायित्वों के निर्वहण से लेकर व्यक्तित्व के विकास का एक नया मार्ग प्रशस्त होता है। पत्नी पुरुष की वामाङ्गिनी अर्धाङ्गिनी के रूप में उसके जीवन को प्रेम, स्नेह, ऊर्जा से पूर्ण करती है। वह अपने पति की प्रेरणास्त्रोत बनकर जीवनयात्रा को एक नयी ऊँचाई प्रदान करती है। आज के युग में जहाँ पुरुष और नारी के समानाधिकार की बात की जाती है, हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी संस्कृति में तो स्त्री को समानाधिकार ही नहीं बल्कि पुरुष से अधिक सम्मान एवं ऊँचा स्थान दिया गया है। गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, माता-पिता आदि शब्द उसी महनीय परम्परा के द्योतक हैं। यह बात अलग है कि पुरुषप्रधान समाज में आज कुछ लोगों ने स्त्री को भोग्या के रूप में मानकर अपने अहंकार को सन्तुष्ट करने का कार्य किया है। उसे सहधर्मिणी न मानकर उसे दासी, सेविका के रूप में मानकर अपनी कुत्सित मनोवृत्ति का परिचय दिया है। आज भी नारी मनुष्य की इस वृत्ति का शिकार बनती है। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है, नारीचेतना जागृत होकर अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग हुई है। स्वावलम्बन का आश्रय लेकर वह किसी की दया और कृपां पर आश्रित न होते हुए जीवन के हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा, कुशलता, कर्मठता, एवं समर्पण का लोहा मनवाया है।

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