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Yajurved (यजुर्वेद)

510.00

Author Dr. Ashok Kumar Gaud
Publisher Rupesh Thakur Prasad Prakashan
Language Hindi & Sanskrit
Edition -
ISBN 978-93-85596-94-0
Pages 447
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0116
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Description

यजुर्वेद (Yajurved)

तद् वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं तद् ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम् ।

ये पूर्वदेवा ऋषयश्च तद्विदुस्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः ॥

वे अनिर्वचनीय परमात्मा वेदों की गुह्य विद्यारूप उपनिषदों में निगूढ़ हैं और वे वेद भी उन्हीं परब्रह्म परमात्मा से निकले हैं। वेदों के उत्पत्ति स्थान उन परमात्मा को ब्रह्माजी जानते हैं। उनके अंतिरिक्त जिन देवताओं और ऋषियों ने पूर्वकाल में उन्हें जाना था, वे सब उन्हीं में तन्मय हो गये और अमृतत्व को प्राप्त कर लिया। उपर्युक्त औपनिषदीय श्रुति यह सन्देश देती है कि उस सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य को वेदों का अध्ययन-मनन और उनमें निहित जीवन-सन्देशों को अपने जीवन में उतारना चाहिये।

वेद भारतीय संस्कृति के ज्ञानकोश हैं, मनुष्य के लिये परमात्मा की ओर से प्राप्त वरदान हैं। ‘अनन्ता वै वेदाः’ कहकर परमात्मा के समान ही उनकी भी महिमा की अनन्तता का ख्यापन किया गया है तथा ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ कहकर उन्हें धर्म का मूल बताया गया है। वेदों की इतनी महिमा होने का कारण यह है कि ये किसी व्यक्ति के पुरुषार्थ से रचित नहीं हैं; अपितु अपौरुषेय हैं। वेद परमात्मा के निःश्वास हैं-

यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।

निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थ महेश्वरम् ॥

महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है कि वेदों का ज्ञान रखनेवाला सब कुछ जानता है; क्योंकि वेद में समस्त विषयों एवं ज्ञान की प्रतिष्ठा है। समस्त जानने योग्य विषय वेद में सन्निहित हैं; जो वहाँ है, वही अन्यत्र प्राप्त हो सकता है, यदि वहाँ (वेद में) नहीं है, तो कहीं नहीं है-

सर्वं विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम् ।

वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च ॥

‘वेद’ शब्द ज्ञानार्थक ‘विद्’ धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय करने से उत्पन्न होता है, जिसका तात्पर्य आध्यात्मिक या धार्मिक ज्ञान है; क्योंकि ये परमात्मा से प्रकट हुए या सुने गये हैं, इसीलिये इन्हें ‘ श्रुति’ कहते हैं। वेदों के अपौरुषेय होने से ही इसके मन्त्रों से सम्बद्ध ऋषियों को ‘स्रष्टारः’ या ‘कर्तारः’ न कहकर ‘ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः’ कहा गया है। वेद के सन्दर्भ में पुराणों में वर्णन प्राप्त होता है कि सृष्टि के आदि में ईश्वर से आविर्भूत वेद ऋक्- यजुः आदि चार पादों से युक्त और एक लाख मन्त्रोंवाला था। ब्रह्माजीकी प्रेरणा से व्यासजी ने व्यासजी ने वेदों का विभाजन करने का उपक्रम किया। उस समय उन्होंने वेदों के पारगामी चार ऋषियों को शिष्य बनाया।

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