Malati Madhvam (मालतीमाधवम्)
₹170.00
Author | Shree Sheshraj Sharma Shastri |
Publisher | Chaukhambha Sanskrit Series Office |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2018 |
ISBN | 81-7080-221-3 |
Pages | 475 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0708 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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मालतीमाधवम् (Malati Madhvam) संस्कृत वाङ्मयमें काव्यके दो भेद हैं-दृश्य और अन्य। जो देखा जाता है अपना जिसको अभिनय करके दिखाया जाता है उसे ‘दृश्य’ काव्य कहते हैं जैसे अभिवान शाकुन्तक और उत्तररामवरित आदि। जो सुना जाता है उसे ‘अन्य’ काव्य कहते हैं जैसे रघुवंश, मेघदूत, किरातार्जुनीय और कादम्बरी आदि। दृश्य काव्यके दो भेद होते हैं- रूपक और उपरूपक। अभिनेता (नट) से दुष्यन्त पात्र के रूपका आरोप होनेले ‘रूपक’ पद अन्वर्थ है। रूपक के दश भेद होते हैं-नाटक, प्रकरण, माण, व्यायोग, समक्कार, डिम, रैदासूग, अङ्क, वोथी और प्रहसन। इसी प्रकार से उपरूपक के भो नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, तहक और नाटयरा एक आदि अठारह भेद होते हैं। लोकमें सामान्यतः नाटक आदि रूपकोंने और नाटिका आदि उपरूपकों में भी नटोंसे रूपका आरोप होनेसे उन्हें ‘रूपक’ और ‘नाटक’ मी कद्दनेको चाल है।
रूषकको उत्पत्तिके विषय में विद्वानोंका कुछ मतभेद देखने में आता है। बहुतेरे पाश्चात्य विद्वान् और उनके कुछ अनुयायी प्राच्य विद्वान् भी ‘रूपकका प्रादुर्भाव पहले ग्रीस (यूनान) में हुआ। अनन्तर बहीसे भारतीय आर्योंने उसका निर्माण और अभिनय सीख लिया है’ ऐसा मानते हैं। इस मत को पुष्ट करने के लिए वे लोग भारतीय रूपकोंमें प्रयोग किये जानेवाले ‘यवनिका’ शब्दका उदाहरण देते हैं। परन्तु रूपकका अस्तित्व बेदके संहिता और नाह्मण आदि माग, पाणिनिकी अष्टाध्यायी, पातञ्जल महामाध्य और प्राचीन महाकाव्य आदि ग्रन्थोंमें बहुत जगह मिलता है। इसी तरहसे रामायणमें ‘व्यामिश्रक’ शब्द संस्कृत और प्राकृत नाटकके लिए प्रयुक्त हुआ है। अष्टाध्यायी में ‘पाराशर्यशिलालिभ्यां भिचुनटसूत्रयोः’ (४।३।११०) और ‘कर्मन्य- कृशाश्वादिनिः’ (४।३।१११) इन दो सूत्रोंमें महामुनि पाणिनिने शिलाति और कृशाबके नटसूत्रका उल्लेख किया है। इसी प्रकारले महामाध्यमें भी शोमिक, शौमिका और शोमनिका इत्यादि शब्दोंसे पतञ्जलि मुनिने मारतमें नाटबरङ्गको सत्ता दिखकाई है। वहींपर बालिवध और कंसवध आदि नाटकवाचक पर्दोका प्रयोग भी देखा जाता है। ‘मगधराज बिम्बसारने नागराज के सम्मान के लिर नाटकका अभिनय कराया था। यह बात भी सुननेमें आती है। बुद्धदेवने भी अपने अनुशासनमें नाट्याभिनयका निषेध किया है।
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