Shri Shiv Mahapuran Set of 2 Vols. (श्री शिव महापुराण २ भागो में)
₹1,530.00
Author | Dr. Ashok Kumar Gaud |
Publisher | Rupesh Thakur Prasad Prakashan |
Language | Sanskrit |
Edition | - |
ISBN | 606-542-2392540 |
Pages | - |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | RTP0120 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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श्री शिव महापुराण २ भागो में (Shri Shiv Mahapuran Set of 2 Vols.) पुराणों का अवदान-भारत की प्राचीन संस्कृति, मनीषा और वाङ्मय के परिशीलन में पुराणों का रेखांकित और उल्लेखनीय महत्त्व है। पुराणों ने हमारी मनीषा, इतिहास, कला एवं धर्म के समग्र चिन्तन और विकास को सँजो रखा है। पुराण-विद्या के प्रतिपादक समग्र वाङ्मय में भारत की प्राचीन और मध्यकालीन राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं अनुशीलनात्मक वैभव का यथार्थ चित्र अंकित हुआ है। महाभारत, महापुराणों का महापुराण और भारतीय इतिहास के आचार-विचार, चिन्तन और अनुशीलन का विश्वकोश है। उसका परिशिष्ट या खिल भाग हरिवंश पुराण भी भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की अद्भुत सामग्री के संरक्षण में कम महत्त्व का नहीं है।
भारतीय वाङ्मय के महापुराण, पुराण, उप-पुराण, पुराणात्मक संहिताएँ या उपोपपुराण कितने महत्त्व के हैं यह केवलं पुराण मर्मज्ञ ही नहीं जानते अपितु विश्व के समस्त प्राचीन इतिहास के अनुशीलक इसे स्वीकार करते हैं। पुराणों में सांस्कृतिक चेतना का जो ज्ञानबोध परिलक्षित होता है उसका जितना महत्त्व भारत के प्राचीन सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक अनुसन्धान में है उतना ही महत्त्व भारत की आचार-परम्परा, बोध-दृष्टि और दार्शनिक अनुचिन्तन में वैभवशाली है। पुराणों के प्रति आस्था-पुराणों का अनुशीलन, श्रद्धा, आस्था, विवेक और तत्त्वानुसन्धानपरक दृष्टिकोण से करना आवश्यक होता है। जो अध्येता पुराण-कथाओं और वर्णनों में तार्किक भावना से प्रवृत होकर त्रुटि दर्शन की दृष्टि से अनुशीलन करते हैं, उन्हें पुराणों में कपोल कल्पना, असम्भवता एवं तथ्यहीन वर्णन दिखाई देते हैं। परन्तु पुराणों की वर्णनशैली एक विशिष्ट रीति के अनुसार चलती है। उसके अध्ययन में श्रद्धा और आस्था से ही पुराणवृत्तों में निहित तत्त्व एवं पौराणिक कथ्य का बोध प्राप्त हो सकता है।
आदि-काव्य और पुराण-वाल्मीकि रामायण का आरम्भ कुछ-कुछ पौराणिक उपक्रम की रीति से हुआ है। ग्रन्थ- प्रस्तावना को इस प्रणाली का विकास आगे चल करके पुराणों में मिलता है। महाकवि वाल्मीकि मुनि पुंगव नारद से ऐसे किसी विशिष्ट पुरुष के परिचय की कामना करते हैं, जो कि वाल्मीकि के युग में समस्त उदात्त, आदर्शमय और सदाचार के उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न हो। महाकवि उसी को नायक बनाकर अपने महाकाव्य की अवतारणा करना चाहते हैं। इसके उत्तर में नारद ने दाशरथि महाराज राम का परिचय और उनके जीवन-चरित्र की रूप-रेखा वाल्मीकि रामायण के प्रथम सर्ग में व्याख्यात की है। पर यह वाल्मीकि रामायण का आरम्भ-जिसे लोक में मूल रामायण भी कहते हैं, उसमें उक्त शैली की उपक्रमात्मक झलक मात्र दिखाई देती है।
महाभारत – पौराणिक वर्णन शैली का विकास वस्तुतः महाभारत से हुआ है। महापौराणिक और अष्टादश पुराणों के रचयिता कृष्णद्वैपायन व्यास ने महाभारत और अष्टादश महापुराणों की भारतीय परम्परा के अनुसार रचना कर लोगों को पौराणिक ज्ञान की अनन्त राशि से कृत-कृत्य किया। महाभारत की गणना यद्यपि महापुराणों में नहीं है तथापि वह प्रथम महा- महापुराण है। लक्षश्लोकात्मक महाभारत, जहाँ भारतीय इतिहास और प्राक् ऐतिहासिक पुराण-कथाओं का विश्वकोश है वहीं यह भारतीय समग्र सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, वैचारिक, आचारिक एवं जीवनदर्शन का उद्भुत महाग्रन्थ है। विश्व का कोई भी अन्य ग्रन्थ-पुराण का अथवा मिथिकल आख्यान न तो आकार में और न वर्ण्य विषयों की दृष्टि से उसकी तुलना कर सकता है। महाभारत महा-महापुराण है। सब पुराणों का उपजीव्य है।
भारतीय साहित्य में न जाने कितने काव्य, नाटक अपने आधिकारिक कथावृत्त के लिए महाभारत के ऋणी हैं। महाकवि कालिदास के विश्वविख्यात नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ की मूल कथा के लिए कालिदास ही नहीं समस्त विश्व-महाभारत का ऋणी है। महापण्डित और महाकवि श्रीहर्ष का ‘नैषधचरितम्’ की मूल कथा महाभारत से ली गयी है। किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवध आदि सभी वहीं से अपनी आधार कथा लेकर काव्य-कर्म में प्रवृत्त हुए हैं। महाभारत तथा अष्टादश पुराण-वस्तुतः सूत्रवाड्मय सहित वैदिक वाङ्मय का उपबृंहण है। वैदिक संहिताओं के साथ वैदिकदृष्टि के विकास में ब्राह्मण-आरण्यक उपनिषद् ग्रन्थों के अतिरिक्त श्रौतसूत्रों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है।
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