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Bhavartha Ratnakar (भावार्थ रत्नाकर)

90.00

Author Jagganath Bhasin
Publisher Ranjan Publication
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2023
ISBN -
Pages 184
Cover Paper Back
Size 12 x 1 x 18 (l x w x h)
Weight
Item Code RP0087
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Description

भावार्थ रत्नाकर (Bhavartha Ratnakar) यह ग्रन्थ फलित ज्योतिष पर एक अत्युत्तम अनुसन्धानात्मक ग्रन्थ है। इसके लेखक श्री रामानुजाचार्य हैं। आपके पिता का नाम भाष्यम जगन्नाथार्य है और आप मगलाद्री महाक्षेत्र के निवासी थे और भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न हुए थे। उनके समय आदि के संबन्ध में कुछ ज्ञात नहीं परन्तु निस्सन्देह आप ज्योतिष शात्त्र के मर्मज्ञ महान् पण्डित हुए हैं। श्री रामानुज कृत ‘भावार्थ रत्नाकर’ ज्योतिष साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह ग्रन्थ कई अर्थों में असाधारण कहा जा सकता है। ज्योतिष के कई मौलिक सिद्धांतों का वर्णन और उदाहरण इस पुस्तक में हमको मिलते हैं। इन सिद्धांतों संबन्धी श्लोकों का अध्ययन हम समझते हैं कि न केवल ज्योतिष शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है बल्कि ज्योतिष के आचार्यों के लिये भी अनिवार्य है। हिन्दी भाषा में इस प्रकार का अनुवाद न होने से हिन्दी ज्योतिष साहित्य में कमी अनुभव की जा रही थी जिसको पूरा करने का यह पुस्तक एक प्रयास है।

जिन महत्त्वपूर्ण नियमों को इस पुस्तक में दिखलाया गया है उसकी एक सूची आपको “नियमाध्याय” में अध्ययन के लिये मिलेगी। यद्यपि ये बातें ज्योतिष साहित्य में ढूंढने पर आपको मिल जायेंगी परन्तु उनको एक स्थान पर इकट्ठा कर ग्रन्थकार ने ज्योतिष की महत्ता को बढ़ाया है। उदाहरण के लिए आप इस नियम को लें कि जो ग्रह दो राशियों के स्वामी हैं वह उस भाव का फल करते हैं जिसमें कि उनकी मूल त्रिकोण राशि स्थित होती है। यह नियम इतने महत्व का है कि हम इसकी जितनी श्लाधा करें, कम है। प्रत्येक जन्म कुण्डली में लग्नेश शुभ माना गया है परन्तु वृषभ लग्न वालों को प्रायः शुक्र की दशा में कष्ट मिलना, आर्थिक कष्ट और शारीरिक कष्ट। वृषभ लग्न इस सन्दर्भ में एक अपवाद क्यों ? कारण कि इस लग्न में शुक्र की मूल त्रिकोण राशि छठे भाव में पड़ती है जो कुण्डली का एक बुरा भाव है, अतः शुक्र लग्न का फल न देकर छठे भाव का फल देता है। अब हमको समझ में आता है कि क्यों महषि पाराशर ने वृषभ लग्न वालों के लिये शुक्र के संबन्ध में कहा कि यह उनके लिये पापी ग्रह है। एक और मौलिक नियम लें कि जो ग्रह अपनी राशियों से बुरे भाव में होता है वह बुरा फल करता है। उदाहरण के लिये मेष लग्न के संबन्ध में कहा है:

“मेष लग्ने तु जातस्य भाग्यान्त्य स्थान नायकः
देवेन्द्र पूज्यो राज्यस्थ स भवेन्मारकः स्मृतः”

अर्थात् मेष लग्न हो और गुरु दशम भाव में हो तो मारक सिद्ध होता है। दशम भाव में स्थित गुरु को हम निर्बल नहीं कह सकते। परन्तु यहाँ गुरु को निर्बल मानना पड़ेगा कारण कि गुरु आयु स्थान अष्टम से तृतीय है और दूसरे आयु स्थान अर्थात् तृतीय से अष्टम है, इसलिए यह आयु को हानि पहुंचाता है। एक और श्लोक लें:-

“मेषे जातस्य हि गुरुलीभ स्थान स्थितो भवेत् गुरोर्वशायां संप्राप्तावयोगो भवे ध्रुवम्।”

मेष लग्न में जन्म हां और गुरु एकादश भाव में हो तो बहुत बुरा फल करता है, गुरु जैसा शुभ ग्रह प्रमुख उपचय स्थान में स्थित हो और बुरा फल करे। क्यों ? कारण कि ऐसी स्थिति में गुरु अपनी एक राशि से तृतीय और दूसरी से द्वादश दोनों प्रकार से बुरा होगा। यदि उपरोक्त सिद्धान्त को हम ध्यान में रखें तो हम समझ सकते हैं कि क्यों नीच राशि में पंचम भाव में स्थित शनि धनु लग्न वालों के लिये शुभ होता है। कारण वही कि शनि अपनी एक राशि मकर से जो शुभ भाव (दूसरे) में स्थित है से शुभ भाव चतुर्थ में है, अत. शुभ फल करेगा। इसी प्रकार शनि अपनी कुंभ राशि से जो बुरे स्वान में है बुरी (तृतीय) स्थिति में है, अतः तृतीय के लिये बुरा फल करेगा। तृतीय का बुरा होना अभीष्ट है ही, अतः अन्तोगत्वा शुभ फल मिलेगा।

इस प्रकार और भी कई असाधारण नियम हमको इस पुस्तक में अध्ययन करने को मिलते हैं जोकि हमार फत्त्रादेश कहने की शक्ति को निस्सन्देह बढ़ाते हैं। उन सबका लिखना संभव नहीं। अनुसन्धान की दृष्टि से भी इस पुस्तक का अध्ययन बहुत लाभप्रद रहेगा। ऐसी हमारी मान्यता है।

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