Surya Siddhant (सूर्यसिद्धान्तः)
₹550.00
Author | Prof. Sacchidanand Mishra |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2019 |
ISBN | 978-93-81189-74-0 |
Pages | 258 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 3 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0025 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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सूर्यसिद्धान्तः (Surya Siddhant) आधुनिक सूर्य सिद्धान्त में १४ अधिकार और ५०० अनुष्टुपछन्द के श्लोक हैं। इसके आरम्भ के श्लोक में लिखा है कि सत्ययुग के अन्त में सूर्य की आज्ञा से सूर्याश पुरुष ने मय नामक असुर को ज्योतिष का उपदेश किया जिसको बने आज शक १८३८ तक २१६५११६ सौर वर्ष हुए। परन्तु आधुनिक सूर्यसिद्धान्त कृतयुगान्तकालिक नहीं है, इस विषय में महामहोपाध्याय पण्डितसुधाकर द्विवेदी प्रोफेसर संस्कृत कालेज बनारस ने पञ्चसिद्धान्तिका की भूमिका में लिखा है, जिसका मैंने उपयोगी समझ कर यहाँ उल्लेख किया है-
सूर्यसिद्धान्तरचनाकालस्तु नित्यानन्देन सिद्धान्तराजकृता कलेः
षट्त्रिंशच्छतमितेऽब्दगणे व्यतीते निगद्यते । स कालस्तु
आर्यभटकृतसिद्धान्तस्य समकालिक एव सिध्यति विभाति च
तथ्यं नित्यानन्देन प्रतिपादितमार्यभटीयसिद्धान्ते न कुत्रापि
सूर्यसिद्धान्तमतप्रतिपादनात् । साम्प्रतं प्रचलितसूर्यसिद्धान्तः
कृतयुगान्तकालिकस्तु केनचिदन्येन प्रकल्पितः नवीन इति
स्फुटमेव सूक्ष्मविचारप्रवृत्तानां गणकानाम् । भारतवर्षे
ऋषिप्रणीतानां सिद्धान्तानामेव प्रमाणं नान्येषां तेन
भारतवर्षीयाश्चिरंतना आचार्याः कमपि मुनिप्रणीतसिद्धान्तं
स्वीकृत्य तत्र बीजादिकं दत्वा स्वं स्वं सिद्धान्तं चक्रुर्यथा
ब्रह्मगुप्तेन ब्रह्मसिद्धान्तं स्वीकृत्यात्मसिद्धान्तो ब्रह्मस्फुटः विरचितः । यथा-
ब्रह्मोक्तं ग्रहगणितं महता कालेन यत् खिलीभूतम् ।
अभिधीयते स्फुटं तज्जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन ।।
भास्कराचार्येणापि स एव ब्रह्मसिद्धान्तः स्वीकृत एवमन्येऽपि
सूर्यसिद्धान्तादीन् स्वीकुर्वन्ति तेन तत्तदाचार्यरचितसिद्धान्तान्
तत्तत्स्वीकृतमुनिसिद्धान्तनाम्ना व्यवहरन्ति । तत्तदुत्तरकालीना
विद्वांसोऽतएव वदन्ति वराहमिहिराचार्याः ‘पश्चभ्यो द्वावाद्यौ
व्याख्यातौ लाटदेवेन’ अर्थात् लाटाचार्येण द्वौ पौलिशरोमक-
सिद्धान्तौ व्याख्यातौ तयोर्भगणादिषु बीजं दत्वा विस्तारितौ
स्वकृतसिद्धान्ते । अत्रेदमुक्तं भवति-लाटाचार्येण पौलिश-
रोमकसिद्धान्तौ स्वीकृत्य तत्र बोजादिविशेषं विधाय रचितो-
ऽन्यः सिद्धान्तः । अत एव यथा मदीयं करणं सर्वजनस्वीकृतं
भवेदिति बुद्ध्या पश्चानां सिद्धान्तानां मतानि स्वीकृत्य रचिता
आचार्येणेयं पश्चसिद्धान्तिका। एवमेव विष्णुचन्द्रादयो
वसिष्ठसिद्धान्तादीन् स्वीकृत्य स्वान् सिद्धान्तान् रचयामासुः न
ते साक्षाद् वसिष्ठादिसिद्धान्तकर्त्तार इति विदुषां मतम् ।।
अर्थात् – सिद्धान्तराज प्रन्धकार नित्यानन्द कहते हैं कि सूर्यसिद्धान्त कलियुग के ३६० वर्ष बीतने पर बना। यह समय आर्यभट्ट कृत आर्यसिद्धान्त के समकाल प्रसिद्ध ही है और सत्य हो प्रतीत होता है। क्योंकि आर्यसिद्धान्त में सूर्यसिद्धान्त का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आधुनिक सूर्वसिद्धान्त के मूल को सत्ययुगान्तकालिक मानना तो ठीक है, लेकिन वर्तमान सूर्यसिद्धान्त को इतना प्राचीन मानना केवल लोगों की कल्पना मात्र है।
भारतवर्ष में ऋषिकृत सिद्धान्त अन्धों को ही प्रमाण माना जाता है औरो का नहीं, इसलिये भारतवर्षीय चिरन्तन आचायों ने किसी मुनि प्रणोत सिद्धान्त को मानकर उसमे बीजादिक संस्कार देकर अपने-अपने सिद्धान्त को बनाया जैसे ब्रह्मसिद्धान्त मान कर अपना सिद्धान्त रचा।
ब्रह्मोक्त बहगणित बहुत काल होने से अशुद्धत्राय हो गया उसी को विष्णुपुत्र ब्रह्मगुप्त स्पष्ट करते हैं। भास्कराचार्य ने भी उसी ब्रह्मसिद्धान्त को माना, इस्सी प्रकार और लोग लोग भी सूर्यसिद्धान्तादिक क को मानते हैं। इस कारण से उन-उन आचार्यरचित सिद्धान्तों को उन-उन के माने हुए मुनिकृतसिद्धान्तों के नाम से तदुत्तर कालीन विद्वान् लोग व्यवहार करते हैं। इसलिये वराह मिहिराचार्य कहते हैं कि पाँच सिद्धान्तों में से प्रथम दो को व्याख्या लाटदेव ने की है। अर्थात् लाटाचार्य ने पौलिश और रोमक सिद्धान्त की व्याख्या की है। इनके भगणादि में बोज मिलाकर विस्तारित कर अपना सिद्धान्त बनाया। यहाँ यह कहा जाता है कि लाटाचार्य ने पौलिश और रोमक सिद्धान्त को मान कर उनमे बीजादि विशेष संस्कार देकर अन्य सिद्धान्त रचा। अत एवं मेरा बनाया करण (अन्य) सब लोगों से माना जाये इस बुद्धि से पाँचों सिद्धान्तो के मत को मूल मानकर आचार्य ने इस पञ्चसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थ को रचा। इसी प्रकार विष्णुचन्द्रादि ने वसिष्ठसिद्धान्तादि को मूल मानकर अपने सिद्धान्त को बनाया। अर्थात् वसिष्ठ आदि मुनियों ने परवर्ती कान्त में स्वयं नहीं बनाया। अपितु तत्सामयिक अचार्य ने उनके मानक आधार से अपने समय सिद्धान्त बनाये। यद्यपि आर्यभट्ट शाके ३९८ में जन्म लेकर २३ वर्ष की अवस्था में आर्य सिद्धान्त बनाये जिसका प्रमाण उसी ग्रन्थ से मिलता है-
कालः षष्ठ्यब्दानां षष्टिर्यदा व्यतीतास्त्रयश्च युगपादाः।
त्र्यधिका विंशतिरब्दास्तदेह मम जन्मनोऽतीताः ।। -आर्यसिद्धान्ते काल-क्रियापादे
अर्थात् शाके ४२१ में यह ग्रन्य बना। इनमें सूर्यसिद्धान्त का कहीं भी उल्लेख नहीं है। कालः षष्ट्यब्दानां षडिति पाठ को बदलकर ६०४६-३६० गत कलि को ‘कालः षष्ट्यब्दानां षष्टिर्यदा में बदलकर आर्यभट को नवीन सिद्ध करने का षड्यन्त्र गुलाम भारत में हुआ। पं अरूप कुमार उपाध्याय जी ने इस तथ्य पर काफी अन्वेषण किये हैं। विशेषज्ञ वृन्द इस तथ्य की समीक्षा करें। वराहमिहिराचार्य का देहान्त शाके ५०९ में हुआ था। अपनी पञ्चसिद्धान्तिका ग्रन्थ में जिस सूर्यसिद्धान्त का उल्लेख किये है, उससे प्रचलित सूर्यसिद्धान्त में अन्तर पड़ता है। इससे अनुमान होता है कि जो सू.सि. वराहमिहिर के समय में था। उससे प्रचलित सू.सि. में काफी अन्तर है।
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