Kumar Sambhawam Sarg 5 (कुमारसम्भवम् पंचमः सर्गः)
₹42.00
Author | Dr. Pramod Kumar Upadhyaya |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 4th edition, 2012 |
ISBN | 978-93-81189-05-4 |
Pages | 170 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0211 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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कुमारसम्भवम् पंचमः सर्गः (Kumar Sambhawam Sarg 5) कुमारसम्भव महाकाव्य का पञ्चम सर्ग उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के अनेक महाविद्यालयों तथा अन्यान्य प्रादेशिक विश्वविद्यालयों में यहाँ तक कि राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के वरिष्ठ उपाध्याय पाठ्यक्रम में भी निर्धारित है। कुमारसम्भव महाकाव्य की आज अनेक टीकायें व्याख्याये टिप्पणियों विद्वानों द्वारा प्रस्तुत की गयी है लेकिन यह नवीन संस्करण लिखने की आवश्यकता अध्ययनकर्ताओं के लिए सरलतम व्याख्या प्रस्तुत करने के निमित्त ही अनुभव किया जा सकता है यद्यपि इस पुस्तक में पूर्व की कला अनुपम है व्याख्या पद्धति को कठिन से सरल बनाने का प्रयास किया गया है, साहित्य रसिक छात्रों को अधिक से अधिक सहायता पहुंचाई जा सके इस बात को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए यह संस्करण तैयार किया गया है। वास्तव में यह संस्करण छात्र और अध्यापकों के मध्य सेतु से कम नहीं है।
अध्यापकों, आलोचकों तथा नई एवं पुरानी विचारधाराओं के विद्वानों के लिए भी इस संस्करण का उतना ही महत्व है जितना की छात्रों के लिए, ऐसा प्रयास किया गया है। प्रारम्भ में अनुसन्धानात्मक भूमिका के साथ इस संस्करण को पदच्छेद, अन्वय, शब्दार्थ, अर्थ, व्याकरण, टिप्पणी आदि से सजाने का भरपूर प्रयास किया गया है। इस संस्करण को इसके अतिरिक्त दो अन्य अलङ्करणों से अलङ्कृत किया गया है। इनमें से एक है महाकवि कालिदास का श्लोक तथा दूसरा है महामहोपाध्याय मल्लिनाथ का सञ्जीविनी व्याख्या। इस प्रकार यह संस्करण तीन व्यक्तियों की ज्ञान-धाराओं का पावन संगम स्थल प्रयाग बन गया है। इस उद्देश्य में कहाँ तक सफलता मिलती है इसका मूल्याङ्कन मेरा काम नहीं बल्कि सहदय पाठक ही बता सकते हैं।
संक्षेप में यह प्रयास किया गया है कि यह संस्करण काव्य के अर्थ एवं भाव को स्वच्छ दर्पण की भाँति प्रतिबिम्बित कर पाठकों की सेवा कर सके या मेरा प्रयास विद्यार्थियों को किञ्चित् (कुछ) भी लाभ दे सका और उनके लिए उपयोगी हो सका तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझेंगा। मैंने अनेक संस्करणों का अध्ययन कर उनसे भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, निर्णय सहृदय पाठकों के विवेक पर निर्भर है। फिर भी इस तरह के कार्य के लिए सारस्वत साधना के साथ ही बाहन सुविधाओं का होना नितान्त आवश्यक है। अन्यथा लेखक को दुर्गम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मै विवाहित व्यक्ति हूँ और इस तरह के व्यक्ति को वैचारिक मन्थन में, कवि के अभिप्रायानुधावन में, कितनी कठिनाइयाँ होती हे यह तो कोई विवाहित लेखक या विचारक ही समझ सकता है। फिर भी मैने इस कार्य को पूर्ण किया। एतदर्थ ईश्वर और गुरु प्रोफेसर रामचन्द्र द्विवेदी के चरणाविन्दों में शतशः नमन करता हुआ मैं उपयोगी अन्थों, मूल प्रतियों के लेखकों एवं विशेषकर महाकवि कालिदास जी के प्रति श्रद्धानत हूँ जिन्होंने यह छात्रों के कल्याणार्थ सारस्वत स्त्रोत प्रवाहित किया है। मैं उन सभी निटज्जनों का हृदय से आभारी हूँ जिनके वचनों का मैंने इस पुस्तक में उपयोग किया है। विशेषकर सरसता तथा वैदुष्य से परिपूर्ण सुरम्य, सारगर्मी, सहृदयी आदरणीय कवि श्री दिवाकर उपाध्याय जी का मैं दिल से आभारी हूँ जिन्होंने अपना अमूल्य समय देकर इस पद्य के अनुवाद को अलङ्कृत कर हमें अनुकम्पित किया है एतदर्थ हम उनके चरणों में नित्य का सादर चरणाभिनन्दन करता हूँ। विशेषकर इस संस्करण को पूर्ण रूप देने में सहायक धर्मपत्नी श्रीमती ज्योति उपाध्याय जी के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय देकर हमारा सहयोग किया है।
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